Saturday, January 9, 2010

यहां तो हज़ारों राठौर हैं

रुचिका यौन उत्पीड़न में भले ही मीडिया के दबाव के बाद उसके दोषी की सच्चई दुनिया के सामने आ गई हो लेकिन देश में महिलाओं के प्रति हिंसा में कोई कमी नहीं आ रही है। राठौर जैसे हजारों लोग येसी हरकतों को आजम देकर बे खौफ घूम रहे हैं. शुक्र मनाइए की मीडिया ने इस मुद्दे को खूब उछाला वर्ना रुचिका को कभी इंसाफ नही मिल पता. अब जरूरत है की इस 
तरह के सभी मामले को सामने लाया जाय जिससे की कोई भी कसूरवार कानून के फंदे से बच न पाए चाहे वो कितना भी ताकतवर क्यों न हो.
   देश में  कई और भी रुचिका और जेसिका लाल हैं, जिन्हें आज भी इंसाफ की दरकार है। सरकारी आंकड़ें खुद चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि अन्य अपराधों की तुलना में महिलाओं के प्रति अपराध में इजाफा ही हो रहा है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों पे अगर नज़र डाली जाये तो हकीकत सामने आ जाती है. ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2007 में देश में दस सबसे तेजी से बढ़ते अपराधों में सात अपराध महिलाओं से जुड़े हैं। पिछले साल की तुलना में इस बार पांच फीसदी का इजाफा हुआ है। दहेज हत्या में 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है तो पति और रिश्तेदारों के द्वारा किए गए अत्याचार में 14 फीसदी का इजाफा हुआ है। जबकि महिलाओं के अपहरण में 13 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई है। जबकि यौन शोषण में ११ प्रतिशत की बढ़त देखी गई है। वहीं रेप और छेड़छाड़ में 7 फीसदी का इजाफा हुआ है। जो कि औसत दर से काफी अधिक है।

    महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के बावजूद सरकार की जांच एजेंसियां इस मामले में सुस्त नजर आ रही हैं। दस यौन उत्पीड़न मामलों में से सिर्फ एक की ही जांच शुरू हो पाई। जबकि छेड़छाड़ और हिंसा के दस केसों में से दो में ही जांच शुरू हो सकी। जबकि बलात्कार और दहेज हत्या के दस मामलों में से सिर्फ तीन में ही जांच चालू हो पाई। पुलिस के आला अधिकारियों का कहना है कि महिलाओं के प्रति हिंसा की बात की जाए तो अपराध बढ़े हुए इसलिए लग रहे हैं, क्योंकि महिलाएं अब खुलकर रिपोर्ट करवाती हैं। जिसके कारण लगता है कि अपराध बढ़ रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। पहले पुलिस के रवैए के कारण महिलाएं थाने जाते बचती थीं। अब ऐसा नहीं है। 

   अगर देखा जाये तो महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को पुलिस भी गंभीरता से नही लेती है तभी तो इस तरह के अपराधो में लगातार इजाफा हो रहा है. हम सबको इस मुद्दे पर आगे आना होगा तभी महिलाओं के ऊपर हो रहे अपराधो को रोका जा सकेगा.

कब तक छले जायेगें गरीब बच्चे

       मिड डे मील के नाम पर परिषदीय स्कूलों के बच्चे छले जा रहे हैं। जिनके नाम पर खाना बन रहा है भले ही उनको न मिले लेकिन उसी के आड़ में लाखों का वारा न्यारा कर रहे है अफसर, कोटेदार, प्रधान और पार्षद। यही नही खाने के नाम पर तो बच्चों को सड़ा खाना दिया जा रहा है. कुछ माह पूर्व ही धर्मशाला बाज़ार की पार्षद राजकुमारी देवी ने दो परिषदीय स्कूलों के लगभग ३०० सौ बच्चों के लिए जो खाना ब्जेजा था वो साद चूका था. बच्चों उस उस खाने को ये कह कर फेक दिया की वो ख़राब हो चूका है. पता ये चला की एक दिन पहले राजकुमारी देवी के घर कोई प्रोग्राम था और उसी का बचा खाना बच्चों को परोस दिया गया. राजकुमारी देवी अपनी बात पर अड़ी रही की खाना ठीक है  बच्चे शरारत कर रहे है.इसके बात भी पार्षद के खेलाफ़ कोई करवाई नही हुई.  
गोरखपुर बस्ती मण्डल के 25 लाख बच्चे आंकड़ों में भरपेट भोजन कर रहे हैं लेकिन हकीकत बिल्कुल उलट है। असल में इन बच्चों की रोटी से खिलवाड़ हो रहा है। इनके हिस्से का अनाज और भोजन बनाने की लागत का उपभोग अफसर, कोटेदार, प्रधान, पार्षद और प्रधानाध्यापकों का रैकेट कर रहा है।
गोरखपुर-बस्ती मण्डल के 15690 परिषदीय स्कूलों में 15605 में मिड डे मील बनने का रिकार्ड है। इन विद्यालयों में 2505910 बच्चों को भरपेट भोजन खिलाने का दावा शिक्षा प्रशासन का है। मगर यह सच नहीं है। सच यह है कि सुदूर ग्रामीण अंचलों से लेकर महानगर के 60 फीसदी स्कूलों में चूल्हा जलता ही नहीं है। कभी कभार कोरम पूरा किया जाता है। ऊपर से नीचे तक मिली भगत है इसलिए न किसी को डर है और न भय।
आंकड़ों के जरिये किस तरह गोरखधंधा चल रहा है, इसका अंदाजा शासन को भेजी गयी एक विभागीय रपट से लगता है। जिस महीने में जिलाधिकारियों की पहल पर सभी एबीएसए तीन दिन तक पांच-पांच स्कूलों की जांच में लगे थे और अनगिनत विद्यालयों में मिड डे मील का चूल्हा जलता नहीं मिला, उस माह की जांच में भी मिड डे मील की रिपोर्ट उपलब्धियों से भरी है। हैरानी की बात यह है कि कुशीनगर जिले में 99.16, गोरखपुर में 100, देवरिया में 98.95, महराजगंज में 96.91, बस्ती में 100, संतकबीरनगर में 99.92 और सिद्धार्थनगर के सौ फीसदी स्कूलों में मिड डे मील बनता पाया गया।  जांच के बाद सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारियों ने कुछ विद्यालयों में मिड डे मील न बनने की शिकायत भी की। तय हुआ कि जिन विद्यालयों में मिड डे मील का चूल्हा नहीं जलता मिला वहां के प्रधानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज होगा लेकिन किसी भी प्रधान के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं कराया गया। सूत्र बताते हैं कि ग्राम शिक्षा समिति और वार्ड शिक्षा समिति को मिड डे मील के नाम पर एक निश्चित कमीशन तय कर दिया गया है। ग्रामीण अंचलों की बात छोड़ दें तो गोरखपुर जैसे महानगर में भी प्राथमिक विद्यालय मोहद्दीपुर कन्या, प्राथमिक विद्यालय मोहद्दीपुर रेलवे, प्राथमिक विद्यालय रायगंज बालक, प्राथमिक विद्यालय अंधियारीबाग समेत दो दर्जन विद्यालयों में चूल्हा जलता ही नहीं है। जहां जलता भी है वहां मानक का उल्लंघन होता है।
गोरखधंधे का दूसरा पहलू यह है कि स्कूलों में फर्जी नामांकन है। आस पास पढ़ने वाले गैर मान्यता प्राप्त कांवेंट स्कूलों के बच्चों का भी नाम परिषदीय स्कूलों में चलता है। उनके हिस्से की रोटी तो सीधे सीधे रैकेट के पेट में चली जाती है। मण्डलीय सहायक शिक्षा निदेशक मृदुला आनन्द का कहना है कि मिड डे मील के लिए सबसे पहले अभिभावक का जागरूक होना जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि जहां चूल्हे नहीं जल रहे या मानक का उल्लंघन हो रहा है वहां सख्त कार्रवाई की जायेगी।

Friday, October 16, 2009

                                                              जर्मनी और मुसलमान
      जर्मनी में रहनेवाले मुसलमानों को जर्मन भाषा सीखनी चाहिये, मुस्लिम समुदाय के बच्चों को इस्लाम की धार्मिक शिक्षा भी जर्मनी में दी जाए और जर्मन विश्वविद्यालयों में मौलवी बनने के लिये प्रशिक्षण कोर्स शुरू किये जाएं. इसके अलावा मस्जिद बनाने की अनुमति के नियमों को आसान बनाया जाए और मुस्लिम समुदाय के बच्चों को नौकरी और आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें.
     कुछ इस तरह के प्रस्ताव और सिफारिशों के साथ जर्मनी अपने यहां बढ़ती मुस्लिम आबादी को समायोजित करने की कोशिश कर रहा है.जर्मनी की राजधानी बर्लिन में जर्मन इस्लामिक कांफ्रेंस के दौरान जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक जर्मनी में मुसलमानों की संख्या तय अनुमान से 10 लाख ज़्यादा हो गई है.शरणार्थी और आव्रजन के संघीय ब्यूरो की इस रिपोर्ट के मुताबिक पहले यहां करीब 30 लाख मुसलमान थे जो अब बढ़कर 40 लाख हो गये हैं यानी कि कुल आबादी का पाँच प्रतिशत.
        मुसलमानों की संख्या और उनकी सामाजिक दशा पर जर्मनी में ये पहली आधिकारिक रिपोर्ट मानी जा रही है.
भिन्न संस्कृति रिपोर्ट के मुताबिक 40 लाख मुसलमानों में से करीब 65 प्रतिशत मुसलमान टर्किश मूल के हैं और शेष दक्षिण पूर्वी यूरोप के देशों, अफ़्रीका और कुछ अफ़ग़ान मूल के हैं. पश्चिमी समाज में मुसलमानों का समन्वय तभी सफल हो सकता है जब वो बिना शर्त लोकतांत्रिक मूल्यों को स्वीकारें गृह मंत्री वोल्फगांग शॉय्बले सांस्कृतिक तौर पर भिन्न इस आबादी का सामाजिक और धार्मिक रूप से जर्मन समाज के साथ मेल-जोल बने, सरकार के सामने ये एक बड़ी चुनौती है. इस चुनौती की चिंता जर्मनी के गृह मंत्री वोल्फगांग शॉय्बले के इस बयान में देखी जा सकती है जो उन्होंने काहिरा विश्वविद्यालय में अपने भाषण के दौरान दिया. उन्होंने कहा, "पश्चिमी समाज में मुसलमानों का समन्वय तभी सफल हो सकता है जब वो बिना शर्त लोकतांत्रिक मूल्यों को स्वीकारें."
      शॉयब्ले के इस बयान को फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी के उस ऐतिहासिक भाषण से भी जोड़कर देखा जा रहा है जिसमें उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर सवाल उठाए हैं. समन्वय का सवाल तब संवेदनशील हो जाता है जब मुस्लिम महिलाओं के हेडस्कार्फ़ पहनने, मुस्लिम बच्चियों के जर्मन स्कूलों में तैराकी और यौन शिक्षा से कथित परहेज, रमजान के महीने में परीक्षा और जर्मन स्कूलों में कथित भेदभाव और उससे असंतोष, मस्जिद निर्माण की अनुमति और मस्जिदों के कामकाज की पद्धति और अंतिम संस्कार जैसे मुद्दे उठते हैं जिनसे शेष जर्मन समाज की आए दिन टकराहट होती है.
       आदर्श स्थित हालांकि इस संवेदनशील मुद्दे पर खुलकर कोई बोलना नहीं चाहता. जर्मनी के फ़्रायबुर्ग शहर के एक रेस्त्रां में काम करनेवाले 22 साल के सुलेमान फ़र्राटे से जर्मन बोलते हैं, "मैं बचपन में ही यहां आ गया था और मेरे लिये यही मेरा देश है." बांग्लादेश से जर्मनी आकर बसे काजी मोहम्मद तुफैल मानते हैं, "एक संदेह हमेशा हमारा पीछा करता रहता है लेकिन हम भी अपने ही घेट्टो में रहते हैं."एक स्थानीय पत्रकार कहते हैं, "ये एक आदर्श स्थिति होगी कि मुसलमान यहां मुख्यधारा में शामिल हो पाएं वरना जर्मन और मुस्लिम समाज की बुनियाद में ही फ़र्क है."
          मुस्लिम समुदाय के खुद अपने भी अंतर्विरोध हैं जहां प्रगतिशील तबका जर्मन कानूनी व्यवस्था और खुलेपन का समर्थक है वहीं रूढ़िवादि लोगों की अपनी शिकायतें औऱ वर्जनाएं हैं. सूत्रों के अनुसार ऐसे ही एक संगठन ने बर्लिन के इस्लामिक सम्मेलन में उस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया जिसमें मुसलमान संगठनो से अपनी फंडिंग व्यवस्था को सार्वजनिक करने के लिये कहा गया था.
                                  अंग्रेजी में दिया जायेगा  पश्चिम बंगाल के मदरसों में  शिक्षा

            पश्चिम बंगाल सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुस सत्तार ने  कहा, "हम पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था के आधुनिकीकरण में विश्वास करते हैं ताकि हमारे बच्चे उत्कृष्ट बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सके."
          उन्होंने कहा कि इसी शैक्षिक सत्र में दस मदरसों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा. आने वाले कुछ वर्षों में बाकी के 566 मदरसों में इसे लागू किया जाएगा.
इन मदरसों में 70 इसी वर्ष से शुरू किए गए हैं जिनमें 34 सिर्फ़ लड़कियों के लिए हैं.सत्तार, जो ख़ुद एक मदरसा में शिक्षक रह चुके हैं, का कहना था कि धार्मिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया कुछ महीनों से जारी है. पश्चिम बंगाल के मदरसों में आधुनिक विज्ञान और गणित की पढ़ाई पहले की शुरू की जा चुकी है. सत्तार का कहना था कि अमरीका और पाकिस्तान से विशेषज्ञों का दल मदरसों में आए इस बदलाव का अध्ययन कर चुके हैं. आधुनिक शिक्षा से वंचित पश्चिम बंगाल में मदरसा शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन सोहराब हुसैन ने बताया, "अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई किए बिना हमारे बच्चों को बेहतरीन शिक्षा नहीं मिल सकती है. इस वजह से हम सभी सरकारी मदरसों और सरकार से स्वीकृत मदरसों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने की सिफ़ारिश करते हैं." हम पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था के आधुनिकीकरण में विश्वास करते हैं ताकि हमारे बच्चे उत्कृष्ट बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सके अब्दुस सत्तार, पश्चिम बंगाल सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री
पश्चिम बंगाल में जब मार्क्सवादी पहली बार सत्ता में आए थे तब उन्होंने प्राइमरी स्तर पर अंग्रेजी को शिक्षा से हटा दिया था. लेकिन दो दशक बाद उन्होंने फिर से अंग्रेजी को प्राइमरी स्तर पर लागू कर दिया.
            बंगाल सरकार की इस बात को लेकर काफ़ी आलोचना हुई थी कि अंग्रेजी में दक्षता हासिल नहीं होने के कारण बंगाल के बच्चे अखिल भारतीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता में पिछड़ रहे हैं.
          राजेंद्र सच्चर कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा के अवसरों से वंचित हैं. आठ करोड़ की जनसंख्या वाले पश्चिम बंगाल में 26 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है जिनमें ज्यादातर ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी है जो अपने बच्चों को मदरसों में ही पढ़ने भेज सकते हैं. सोहराब हुसैन कहते हैं कि इस वजह से जब तक हम मदरसों की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक नहीं बनाएँगे तब तक ज्यादातर मुस्लिम बच्चों को हम अच्छी शिक्षा नहीं दे सकते.